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होली-दीवाली पर ‘ज्ञान’ देने वाले आज कह रहे ‘बकरा हमारा, ईद हमारी...

491 days ago   -    430 views

PFL News - होली-दीवाली पर ‘ज्ञान’ देने वाले आज कह रहे ‘बकरा हमारा, ईद हमारी...

मुंबई के मीरा रोड पर मोहसिन खान के सोसायटी में बकरा लाने पर हुआ विवाद बकरीद से पहले खूब तूल पकड़ा। इस बीच दिल की तसल्ली के लिए जानवर के कितने टुकड़े काटकर बकरीद पर खाएँगे इसका एक नया ट्रेंड भी इस दिन सोशल मीडिया पर देखने को मिला। खुद को पत्रकार बताने वाली काविश अजीज ने सोशल मीडिया पर उस समय अपनी भड़ास निकाली जब एक अन्य पत्रकार सिर्फ ये अपील कर रहे थे कि मजहब के नाम पर जानवरों को न काटा जाए।

काविश ने इतनी सी बात पर एक भारी भरकम बकरे के साथ अपनी तस्वीर डाली और लिखा, “ये ट्विटर है तुम्हारे बाप का बगीचा नहीं जो कुछ भी लिख कर चले जाओगे और सुनो बकरा हमारा, त्योहार हमारा, कुर्बानी देंगे, कीमा कलेजी, कबाब, बिरयानी खाएँगे हम, मगर जलेगी तुम्हारी….”

अब कोई शाकाहारी व्यक्ति इस पोस्ट को अचानक पढ़े तो शायद उसे ऐसी भाषा पढ़ते ही उलटी हो या फिर पत्रकार से ही हमेशा के लिए घिन्न हो जाए… क्योंकि इस पोस्ट को देखकर यही पता नहीं चल रहा कि बकरा दिखाकर त्योहार मनाने की बात हो रही है या त्योहार के नाम पर जो उसका कत्ल किया जाना है उसकी उत्सुकता जाहिर हो रही है। 

ऐसा पोस्ट लिखने वाली पत्रकार अच्छे से जानती होंगी कि उन्होंने लिखा क्या है। उन्हें पता है कुर्बानी का अर्थ कोई केक कटिंग जैसा नहीं है। उसमें बाकायदा एक जीव का गला रेतकर उसकी खाल को नोचा जाता है। उसके माँस के धारदार चाकू से टुकड़े होते हैं, उसमें जो खून लगा होता है उसे धो-पोंछकर ही वो कीमा कलेजी, कबाब, बिरयानी बनता है जिसे खाने के लिए काविश की लार टपक रही है।

काविश मानती हैं कि उनका ये जवाब सिर्फ हेटर्स के लिए है जिसे देकर उनके दिल को सुकून मिल रहा है। वो मजहब के नाम पर इतना अंधी हो गईं हैं कि वो ये नहीं समझ पा रहीं सामने वाला उनसे क्या अपील कर रहा है। अभय प्रताप सिंह ने सिर्फ इतना ही तो लिखा – बकरीद आने वाली है। खून बहाया जाएगा, बेजुबान काटे जाएँगे। हमें ये सब बंद करना होगा। मजहब के नाम पर जानवरों का कत्लेआम सही नहीं है। आओ बकरों को बचाएँ… बकरा फ्री ईद मनाएँ…केक का बकरा काटकर ईको फ्रेंडली ईद मनाएँ।

बताइए इस पूरे पोस्ट में गलत क्या है। क्या इससे पहले दिवाली-होली पर आपने ऐसी चिंताएँ नहीं देखीं। होली पर जब कहा जाता है कि सैंकड़ो लीटर पानी बर्बाद होगा, दिवाली पर तर्क दिया जाता है कि प्रदूषण बढ़ेगा तब क्या कोई आपको बकरीद पर ये नहीं समझा सकता कि ये एक हिंसात्मक प्रक्रिया है और त्योहार के नाम पर इसे बढ़ावा देना गलत है। इस अपील को मानने की बजाय उसपर ढिठाई दिखाई जा रही है कि हम खाएँगे जो मन हो कर लो।

आपको किसी ने मांसाहार खाने से मना नहीं किया है। ये बात सब जानते हैं कि देश की अर्थव्यवस्था में माँस का निर्यात कितनी अहम भूमिका निभाता है या ये कितने लोगों के व्यापार का सहारा है। बकरीद पर कुर्बानी न देने की अपील सिर्फ इसलिए है ताकि त्योहार के नाम पर सालों से चली आ रही हिंसात्मक प्रक्रिया पर विराम लगे और समाज में सकारात्मक संदेश जाए कि बिन हिंसा भी त्योहार मनते हैं उसके लिए जीव हत्या जरूरी नहीं।


लेकिन, पत्रकार काविश अकेली नहीं हैं जिन्हें ये सुनकर गुस्सा आता है कि वो आखिर क्यों कोई उन लोगों से ये कह रहा है कि त्योहार पर बकरा न काटें जाए। इस लिस्ट में आरजे सायमा बहुत पुराना नाम हैं। वह हर साल जब एक अभियान को चलता देखती हैं कि कैसे बकरा काटने से मना किया जा रहा है तो उन्हें दुख होता है। एक बार उन्होंने इस अपील को बेहद शर्मनाक बताया था।


उन्होंने कहा था, ”ये बहुत शर्मनाक है कि आप एक समुदाय को उनका त्योहार शांति, खुशी और उल्लास के साथ मनाने देना नहीं चाहते। मैं इसको कोई तूल नहीं देती। ये मजाक तुम पर नहीं है। तुम ही मजाक हो।”

आज वो सायमा राहुल गाँधी के ईद मुबारक पर लिख रही हैं कि मोहब्बत की दुकान आबाद रहे। ईद के मौके पर मोहब्बत की दुकान कौन सी है ये समझना मुश्किल है। क्या ये वो दुकानें हैं जहाँ बेजुबान पशुओं को काटा जाता है और अगर कोई ऐसा करने से रोके तो उसे असहिष्णु कह दिया जाता है कि एक समुदाय को उसका त्योहार मनाने से मना कर रहे हैं। अगर नहीं, तो फिर आरजे सायमा को उन लोगों से दिक्कत क्यों होती रही है जो बकरीद पर कुर्बानी न देने की अपील करते हैं।

बीते समय में जाइए और याद करिए कि मुस्लिमों के कौन से त्योहार को कभी मनाने से रोका गया है! सिर्फ एक बकरीद ऐसा त्योहार है जिसे कोई मनाने से मना नहीं कर रहा सिर्फ उसका तरीका बदलने को कह रहा है।

सोचिए, मोहसिन को सोसायटी में बकरा नहीं लाने दिया गया तो उसपर इतना हंगामा हो गया। लेकिन आपको नहीं लगता ये सब अनुमति के साथ होना चाहिए। हो सकता है बकरे की कुर्बानी आपके लिए एक सामान्य प्रक्रिया हो लेकिन किसी के लिए ये झकझोरने वाले दृश्य भी हो सकते हैं। हो सकता है मोहसिन उसकी कुर्बानी सोसायटी से बाहर देता लेकिन कुर्बानी के उद्देश्य से उसे घर पर लाना क्या किसी को प्रभावित नहीं कर सकता?


सोसायटी में कितने लोग रहते हैं, किस धर्म के हैं, कुर्बानी के लिए उनकी अनुमति है या नहीं ये सब मैटर करता है। मोहब्बत की दुकान आबाद तभी नहीं रहेगी जब बकरे का खून बहेगा और वो गोश्त बनकर घर-घर बँटेगा। मोब्बत की दुकान तब भी आबाद रह सकती है जब आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक रूप से मजबूत कौम के लोग के सालों से चली आ रही हिंसात्मक प्रक्रिया को बदलें या उसे बदलने का प्रयास करें। न कि इस बात पर अड़ें कि अरे जब सालों से बकरा-भैंसा कुर्बानी के लिए काटा गया है तो अब क्यों नहीं काटा जा सकता।

Tags EID BAKRAEID PETA

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