अधजले शव फेंक आए अंग्रेज; भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु से जुड़े किस्से12 घंटे पहले फांसी दी, खाना भी नहीं खा सके:
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24 मार्च 1931 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी दी जानी थी। भगत इस फैसले से खुश नहीं थे। उन्होंने 20 मार्च 1931 को पंजाब के गवर्नर को एक खत लिखा कि उनके साथ युद्धबंदी जैसा सलूक किया जाए और फांसी की जगह उन्हें गोली से उड़ा दिया जाए।
लाला की हत्या और भगत की कसम
कहानी शुरू होती है जब चौरी-चौरा के बाद 1922 में महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। इससे नाराज होकर भगत, चंद्रशेखर और बिस्मिल जैसे हजारों युवाओं ने अंग्रेजों के खिलाफ हथियारबंद क्रांति का रुख कर लिया था। चंद्रशेखर आजाद की लीडरशिप में भगत ने भी हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) नाम का ग्रुप जॉइन कर लिया था।
आजाद ने ही भगत को गिरफ्तार होने से बचाया
भगत और राजगुरु ने सांडर्स को इस्लामिया कॉलेज के सामने गोली मारी थी, फिर DAV कॉलेज में कपड़े बदले थे। इस प्लान में बैकअप देने का जिम्मा आजाद के पास था।
राजगुरु और भगत सिंह दोनों ने अपनी बंदूकें सांडर्स पर खाली कर दी थीं। इसी दौरान सिपाही चानन सिंह भगत को पकड़ने के बेहद करीब था, लेकिन आजाद ने उसे भी ढेर कर दिया।
सांडर्स की हत्या के बाद क्रांतिकारी जिस तरह लाहौर से बाहर निकले, वह भी बेहद रोचक किस्सा है। भगत सिंह एक सरकारी अधिकारी की तरह ट्रेन के फर्स्ट क्लास डिब्बे में श्रीमती दुर्गा देवी बोहरा (क्रांतिकारी शहीद भगवतीचरण बोहरा की पत्नी) और उनके 3 साल के बेटे के साथ बैठ गए। वहीं राजगुरु उनके अर्दली बनकर गए। ये लोग ट्रेन से कलकत्ता भाग गए, फिर आजाद ने साधु का भेष बनाया और मथुरा चले गए।
भगत की गिरफ्तारी और जेल में भूख हड़ताल
भगत को फांसी भले ही लाहौर सेंट्रल जेल में हुई, लेकिन उनकी गिरफ्तारी दिल्ली की सेंट्रल असैंबली में हुई थी। यहां ‘ट्रेड डिस्प्यूट बिल’ और ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ पर चर्चा हो रही थी। 'ट्रेड डिस्प्यूट बिल’ पहले ही पास हो चुका था, जिसके तहत मजदूरों की हड़तालों पर पाबंदी लगा दी गई। वहीं ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ के जरिए ब्रिटिश हुकूमत संदिग्धों पर बिना मुकदमा चलाए हिरासत में रख सकती थी।
भगत और और बटुकेश्वर दत्त 8 अप्रैल 1929 की सुबह 11 बजे असैंबली में पहुंचकर गैलरी में बैठ गए। करीब 12 बजे सदन की खाली जगह पर दो बम धमाके हुए और फिर भगत ने एक के बाद एक कई फायर भी किए। धमाके के वक्त सदन में साइमन कमीशन वाले सर जॉन साइमन, मोतीलाल नेहरू, मोहम्मद अली जिन्ना, आरएम जयकर और एनसी केलकर भी मौजूद थे।
दिल्ली असैंबली में बम फेंकने के बाद जो पर्चे उछाले गए थे, उन पर लिखा था- ‘बहरों को सुनने के लिए जोरदार धमाके की जरूरत होती है।’ ये पहले से तय था कि भगत और बटुकेश्वर गिरफ्तारी देंगे।
सांडर्स केस के लिए भगत को लाहौर जेल भेजा गया
12 जून 1929 को ही भगत को असैंबली ब्लास्ट के लिए आजीवन कारावास की सजा सुना दी गई थी। हालांकि, जो बंदूक असैंबली में भगत ने सरेंडर की थी, वो वही थी जिससे सांडर्स की भी हत्या की गई थी। इसकी भनक पुलिस को लग चुकी थी। इस केस के लिए भगत को लाहौर की मियांवाली जेल में शिफ्ट किया गया था।
लाहौर जेल पहुंचते ही भगत ने खुद को राजनीतिक बंदियों की तरह मानने का और अखबार-किताबें देने की मांग शुरू कर दी। मांग ठुकरा दिए जाने के बाद 15 जून से 5 अक्टूबर 1929 तक भगत और उनके साथियों ने जेल में 112 दिन लंबी भूख हड़ताल की।
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